नए विभाग के अधिकारी समझ नहीं पाए कि मैं ट्रांसवाल में दाखिल कैसे हो गया। उन्होंने अपने पास आने-जानेवाले हिंदुस्तानियों से पूछा, पर वे बेचारे क्या जानते थे।
अधिकारियों ने अनुमान किया कि मैं अपनी पुरानी जान-पहचान के कारण बिना परवाने के दाखिल हुआ होऊँगा और अगर ऐसा है तो मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है।
किसी बड़ी लड़ाई के बाद हमेशा ही कुछ समय के लिए राज्यकर्ताओं की विशेष सत्ता दी जाती है। दक्षिण अफ्रीका में भी यही हुआ। वहाँ शांति रक्षा के हेतु एक कानून
बनाया गया था। इस कानून की एक धारा यह थी कि यदि कोई बिना परवाने के ट्रांसवाल में दाखिल हो, तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाए और उसे कैद में रखा जाए। इस धारा के
आधार पर मुझे पकड़ने के लिए सलाह-मशविरी चला। पर मुझ से परवाना माँगने की हिम्मत किसी की नहीं हुई।
अधिकारियों ने डरबन तार तो भेजे ही थे। जब उन्हें यह सूचना मिली कि मैं परवाना लेकर दाखिल हुआ हूँ तो वे निराश हो गए। पर ऐसी निराशा से यह विभाग हिम्मत
हारनेवाला नहीं था। मैं ट्रांसवाल पहुँच गया था, लेकिन मुझे मि. चेंबरलेन के पास न पहुँचने देने में यह विभाग अवश्य ही सफल हो सकता था। इसलिए प्रतिनिधियों के
नाम माँगे गए। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का अनुभव तो जहाँ-तहाँ होता ही था, पर यहाँ हिंदुस्तान की सी गंदगी और चालबाज की बू आई। दक्षिण अफ्रीका में शासन के
साधारण विभाग जनता के लिए काम करते थे, इसलिए वहाँ के अधिकारियों में एक प्रकार की सरलता और नम्रता थी। इसका लाभ थोड़े-बहुत अंश में काली-पीली चमड़ीवालों को भी
अनायास मिल जाता था। अब जब इससे भिन्न एशियाई वातावरण ने प्रवेश किया, तो वहाँ के जैसी निरंकुशता, वैसे षड्यंत्र आदि बुराइयाँ भी आ घुसीं। दक्षिण अफ्रीका में एक
प्रकार की लोकसत्ता थी, जब कि एशिया से तो निरी नवाबशाही ही आई, क्योंकि वहाँ जनता की सत्ता नहीं थी, बल्कि जनता पर ही सत्ता चलाई जाती थी। दक्षिण अफ्रीका में
गोरे घर बनाकर बस गए थे, इसलिए वे वहाँ की प्रजा माने गए। इस कारण अधिकारियों पर उनका अंकुश रहता था। इसमें एशिया से आए हुए निरंकुश अधिकारियों में सम्मिलित
होकर हिंदुस्तानियों की स्थिति सरोते के बीच सुपारी जैसी कर डाली।
मुझे भी इस सत्ता का ठीक-ठीक अनुभव प्राप्त हुआ। पहले तो मुझे इस विभाग के उच्चाधिकारी के पास बुलवाया गया। वे उच्चाधिकारी लंका से आए थे। 'बुलवाया गया' प्रयोग
में कदाचित अतिशयोक्ति का आभास हो सकता है, इसलिए थोड़ी अधिक स्पष्टता कर दूँ। मेरे नाम उनका कोई पत्र नहीं आया था। पर मुख्य-मुख्य हिंदुस्तानियों को वहाँ
बार-बार जाना ही पड़ता था। वैसे मुखियो में स्व. सेठ तैयब हाजी खानमहम्मद भी थे। उनसे साहब ने पूछा, 'गांधी कौन है? वह क्यों आया है?'
तैयब सेठ ने जवाब दिया, 'वे हमारे सलाहकार है। उन्हें हमने बुलाया है।'
साहब बोले, 'तो हम सब यहाँ किस काम के लिए बैठे है? क्या हम आप लोगों की रक्षा के लिए नियुक्त नहीं हुए है? गांधी यहाँ की हालत क्या जाने?'
तैयब सेठ ने जैसा भी उनसे बना इस चोट का जवाब देते हुए कहा, 'आप तो है ही, पर गांधी तो हमारे ही माने जाएँगे न? वे हमारी भाषा जानते है। हमें समझते है। आप तो
आखिरकार अधिकारी ठहरे।'
साहब ने हुक्म दिया, 'गांधी को मेरे पास लाना।'
तैयब सेठ आदि के साथ मैं गया। कुर्सी तो क्योंकर मिल सकती थी? हम सब खड़े रहे।
साहब ने मेरी तरफ देखकर पूछा, 'कहिए, आप यहाँ किसलिए आए है?'
मैंने जवाब दिया, 'अपने भाइयों के बुलाने पर मैं उन्हें सलाह देने आया हूँ।'
'पर क्या आप जानते नहीं कि आपको यहाँ आने का अधिकार ही नहीं है? परवाना तो आपको भूल से मिल गया है। आप यहाँ के निवासी नहीं माने जा सकते। आपको वापस जाना होगा।
आप मि. चेंबरलेन के पास नहीं जा सकते। यहाँ के हिंदुस्तानियों की रक्षा करने के लिए तो हमारा विभाग विशेष रूप से खोला गया है। अच्छा, जाइए।'
इतना कहकर साहब ने मुझे बिदा किया। मुझे जवाब देने का अवसर ही न दिया।
दूसरे साथियों को रोक लिया। उन्हें साहब ने धमकाया और सलाह दी कि वे मुझे ट्रांसवाल से बिदा कर दे।
साथी कड़वा मुँह लेकर लौटे। यों एक नई ही पहेल अनपेक्षित रूप से हमारे सामने हल करने के लिए खड़ी हो गई।